ICT-HINDI


INTRODUCTION

Language is universal at root. Every language has embedded in it the deep culture of the land in which it took root yet when it comes to literature, it embodies the timeless themes of life that touches everyone and gives a deep joy. Hindi is an exemplary example of this. It is the language largely spoken in the northern parts of India and its literature is deep and profound.

A study of Hindi gives the benefits of universalizing language, getting acquainted with the culture of India, and in its timeless themes embodies the best of man’s creative expression.

In this section, we have enabled learning Hindi from the very foundations. We start with a section on spoken Hindi with the help of English. Then we take you on a journey in Hindi in the three historical periods- ancient, medieval and modern.

For academic pursuits, we have covered in depth the undergraduate and post graduate syllabi and we also have a section where you can crack all exams on the UG and PG level.

Our site is the one place where you get all the in depth information you need for any of your purposes. 


Dr A.C.V.Ramakumar

HINDI - ICT TEACHING METHODS


आज हिन्दी की अनिवार्यता 

CIVIL SERVICES EXAM. : HINDI (OPTIONAL SUBJECT)

CAREER IN HINDI

हिन्दी: देवनागरी लिपि (HINDI : DEVNAGRI LIPI)

हिन्दी साहित्य का इतिहास (परिचय)











































उद्भव और विकास - मध्यकाल 

भक्तिकाल(रामकाव्य परम्परा) 

तुलसीदास-रामचरितमानस (सातकाण्ड)

तुलसीदास-रामचरितमानस-1

तुलसीदास-रामचरितमानस-2

विनयपत्रिका-1 (तुलसीदास)

विनयपत्रिका-2 (तुलसीदास) 

विनयपत्रिका-3 (तुलसीदास)

गीतावली-I (तुलसीदास)

गीतावली-II (तुलसीदास)

गीतावली में भक्ति और गीती भाषा 

भक्तिकाल(कृष्णकाव्य परम्परा) 

सूरदास-सूरसागर(भ्रमरगीत)

सूरदास-सूरसागर (वियोग श्रृंगार) 

सूरसागर - श्रृंगार रस (राधा के संदर्भ में)-III

भक्तिकाल(संतकाव्य परम्परा) 

भक्तिकाल(सूफ़ीकाव्य परम्परा)

पद्मावत (PADMAVAT)


दादू दयाल : जीवन और साहित्य
रीतिकाल










































आधुनिक काल - डॉ पूरनचंद टण्डन

आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास(1857-1947)

आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास ( 1947 सो 2010)

आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास-भारतेंदुयुग

आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास-द्विवेदीयुग

महावीरप्रसाद दि्ववेदी युग की स्थिति (गद्य की विधाएँ)

आधुनिक हिन्दी कविता ( राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक काव्यधारा)

आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास - छायावाद काव्य 

कामायनी - जयशंकर प्रसाद (भाग-1)

कामायनी - जयशंकर प्रसाद (भाग-2)

आधुनिक हिन्दी कविता (प्रगतिवाद)

आधुनिक हिन्दी कविता ( प्रयोगवादी एवं नयी कविता)

साकेत - कालजयी रचना
साकेत - मैथिलीशरण गुप्त – I

साकेत (नामकरण का आधार क्या है?) – II

मैथिलीशरण गुप्त – यशोधरा-1 

मैथिलीशरण गुप्त – यशोधरा-2 

हिंदी गद्य की अन्य विधाएँ 

हिंदी गद्य की अन्य विधाएँ - 2

हिंदी गद्य की अन्य विधाएँ - 3 

हिंदी उपन्यास का विकास यात्रा-1 

हिंदी उपन्यास का विकास यात्रा-2 

हिंदी उपन्यास का विकास यात्रा-3

हिंदी उपन्यास का विकास यात्रा-4 

हिंदी उपन्यास का विकास यात्रा-5 

हिंदी कहानी-1

हिंदी कहानी-2 

हिंदी कहानी-3 

हिन्दी निबंध साहित्य – 1

हिन्दी निबंध साहित्य – 2

हिन्दी निबंध साहित्य – 3

हिन्दी गद्य का उद्भव एवं विकास

उपन्यास ( सन् 1946 के बाद)

हिन्दी की गद्य विधाएँ – I

हिन्दी की गद्य विधाएँ – II

हिन्दी का उद्भव और विकास-VI

हिन्दी का उद्भव और विकास-V (आधुनिक काल)

नी़ड़ का निर्माण फिर (बच्चन) आत्मकथा-II(i)

नी़ड़ का निर्माण फिर (बच्चन) आत्मकथा-II(ii)

बसेरे से दूर (हरिवंश राय बच्चन) अात्मकथा-III(i)

बसेरे से दूर (हरिवंश राय बच्चन)अात्मकथा-III(ii)

दश द्वार से सोपान तक - बच्चन की आत्मकथा-IV (i) (डॉ. रूचीरा)

दश द्वार से सोपान तक - बच्चन की आत्मकथा-IV (ii)

हिंदी आत्मकथा

हिंदी आत्मकथा-2 

हिंदी संस्मरण और रेखाचित्र 

हिंदी संस्मरण और रेखाचित्र-2 

रिपोर्ताज लेखन 

रिपोर्ताज लेखन-2 

साक्षात्कार लेखन

कहानीकार बच्चन 

कहानीकार बच्चन-2 

बच्चन की डयरी 

प्रवास की डायरी और बच्चन 

गदल – (कहानी)

आकाशदीप - कहानी

प्रेमचंद कृत गोदान – कथानक की विशेषताएँ

बाणभट्ट की आत्मकथा में प्रेम का स्वरुप 

हजारीप्रसाद द्विवेदी की इतिहास-दृष्टि 

उपन्यास की संरचना 

हिन्दी एकांकी (भाग-1)

हिंदी एकांकी 

कहानी कला/आलोचना 

हिंदी आलोचना 

हिंदी आलोचना-2 

हिन्दी आलोचना-3

हिंदी निबंध-1

हिंदी निंबंध-2

आधुनिककालीन हिन्दी कविता - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

आधुनिककालीन हिन्दी कविता - रघुवीर सहाय

उषा प्रियंवदा-1 
उषा प्रियंवदा-2

प्लेटो का साहित्य चिंतन 

अरस्तु के अनुकरण सिद्धांत

अरस्तु-त्रासदी की अवधारणा 

लोन्जाइनस के उदात्ततत्व का अध्ययन 

टी.एस.इलियट का काव्य सिद्धांत 

क्रोचे का अभिव्यंजनावाद

रिचड्स का मूल्य सिद्धांत 

वाड्सवर्थ 

आधुनिकतावाद 

साहित्य के शोध/अध्ययन की पद्धतियाँ (शोध छात्रों केलिए)

हिंदी नवजागरण सामाजिक परिवर्तन की भूमिका और लोक साहित्य

हिन्दी और साहित्य में महिलाओं का योगदान 

हिन्दी साहित्य में महिलाओँ का योगदान(बंगमहिला) 

जूठन आत्मकथा और दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि

दलित साहित्य का वैचारिक आधार और डॉ. भीमराव अम्बेडकर 

प्रेमचंद की नारी केंद्रित कहानियाँ 

दलित साहित्य-1 

दलित साहित्य-2


जनसंघर्ष और कविता

कफ़न – प्रेमचंद

कफ़न – प्रेमचद (DD NATIONAL)

पत्नी (कहानी) – जैनेंद्रकुमार

राजा निरबंसिया - कमलेश्वर

अमृतसर आ गया है। - भीष्म साहनी

उसने कहा था - चंद्रधर शर्मा गुलेरी

दोपहर का भोजन - अमरकांत

परिन्दे – निर्मलवर्मा

हास्यरस (कहानी) - ज्ञानरंजन

हिन्दी आलोचना में गोदान का मूल्यांकन

गोदान का शिल्प

गोदान की समस्याएँ

गोदान की अर्थ ध्वनियाँ

हिन्दी आलोचना में बाणभट्ट की आत्मकथा

आंचलिकता की अवधारणा और हिन्दी उपन्यास

हिन्दी आलोचना में मैलाआंचल का मूल्यांकन

मैलाआंचल की भाषा और शिल्प

मैला आंचल के पात्र (फणीश्वरनाथ रेणु)

मैलाआंचल में लोकजीवन

कुवँर नारायण का काव्य कथ्थ

हिन्दी आलोचना में धूमिल का मूल्यांकन

कथेतर साहित्य की विविध विधाएँ

हिन्दी निबंध का उदय

नवजागरण और भारतेंदुयुगीन निबंध

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबंध साहित्य

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध

पंडित विद्यानिवास मिश्र के निबंध

समकालीन निबंध

हिन्दी नवजागरण और डॉ. रामविलास शर्मा

चंद्रधरशर्मा गुलेरी के निबंधों की विशेषताएँ

ललित निबंध : अर्थ, आशय और स्वरूप

हिन्दी आलोचना का आरंभ

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का आलोचना कर्म

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का आलोचना प्रतिमान: लोकमंगल

शुक्लोत्तर आलोचना की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना और संस्कृतिक चेतना

डॉ. रामविलास शर्मा और हिन्दी जाति की अवधारण

समकालीन हिन्दी आलोचना

मुक्तिबोध की आलोचना की प्रमुख स्थापनाएँ

उग्र की “अपनी खबर” की सृजन संस्कृति

हिन्दी में जीवनी लेखन की परंपरा

हिन्दी में आत्मकथा लेखन की परंपरा

‘आवारा मसीहा’ लेखकीय संघर्ष के शिखर

संस्मरण लेखन की परंपरा

संस्मरण

रेखा चित्रों का वैशिष्ट एवं परम्परा

समकालीन यंग्य लेखन

हिन्दी व्यंग्य और हरिशंकर परसाई

शिवशंम्भु के चिट्ठे में व्यंग्य – विनोद

दिनकर की डायरी

डायरी लेखन की परम्परा

पत्र-साहित्य

रिपोर्ताज – ऋणजल धनजल

मेरे साक्षात्कार : डॉ. रामविलाश शर्मा

हिन्दी का यात्रा साहित्य

यात्रा वृत्तांत: सौंदर्य की नदी नर्मदा

कबीरदास

आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल - “हिन्दू धर्मशास्त्र सम्बंधी ज्ञान उन्होंने हिन्दू साधु-सन्यासियों के सत्संग से प्राप्त किया, जिसमें उन्होंने सूफियों के सत्संग से प्राप्त प्रेमतत्व का मिश्रण किया, वैष्णवों से अहिंसा का तत्व लिया और एक अलग पंथ खड़ा किया। xxx इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये समस्त तत्व लक्षित होते है”।

कबीर एक संत एवं समाज सुधारक थे। भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली महाकवि है, जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घकाल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जन-जीवन का नायकत्व किया। कबीर का सारा जीवन सत्य की खोज तथा असत्य के खण्डन में व्यतीत हुआ। कबीर की साधना मानने से नहीं, जानने से आरम्भ होती है।

कबीर सिकन्दर लोधी के समकालीन थे। स्वामी रामानंद इनके दीक्षा गुरू थे। ‘भक्तमाल’ में रामानंद के प्रमुख शिष्यों का उल्लेख करते हुए कबीर को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। कबीर मुख्यतः गुरू को ही अत्यंत महत्व दिया है। क्योंकि गुरू ही हमारा मार्गदर्शन करेगा।

जैसे ----

“गुरूकुम्हारसिषकुम्भहै, गढ़गढ़काढ़ैखोट।
अंतरहाथसहारदै, बाहरबाहैचोट”।।


“मायादीपकनरपतंग, भ्रमि-भ्रमिइवैपडंत।
कहैकबीरगुरूग्यानथैं, एकआधउभरंत”।।

किंवदन्ती है कि एक विधवा ब्राह्मणी ने लोक-लाज के कारण नवजात कबीर को लहरतारा नाम के तालाब के निकट फेंक दिया था। नीरू जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा ने बालक के रूप में विद्यमान सत्पुरूष को अपने घर लाकर पालन-पोषण किया। इस प्रकार जुलाहा परिवार में परिपालित सत्पुरूष ने युग के शोषण और बंधनों को शिथित करके सामाजिक जीवन का एक नया परिच्छेद उद्घाटित किया। जनश्रृतियों में प्रसिद्ध है कि कबीर की पत्नी का नाम लोई थी। उनके संतान के रूप में पुत्र कमाल और पुत्री कमाली का उल्लेख मिलता है।

“पोथीपढ़ि-पढ़िजगमुआ, पंडितभयानकहोय।
ढ़ाईअक्षरप्रेमका, पढ़ैसोपंडितहोय”।।

अक्षर-ब्रह्म के परम साधक कबीर सामान्य अक्षर ज्ञान से रहित थे। उन्होंने बडे स्पष्ट शब्दों में कहा है – “मसि कागद छुयौ नही, कलम गह्यौ नहिं हाथौ”। उन्होंने स्वयं नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्योंने उसे लिख लिया। उन्होंने सत्संग व्दारा पर्याप्त ज्ञान अर्जित किया था। उनकी वाणी में भारतीय अव्दैतवाद, अथवा ब्रह्मवाद, औपनिषिदिक रहस्यवाद, सूफियों के भावात्मक एवं साधनात्मक रहस्यवाद तथा उनके प्रेम की पीर, वैष्णव भक्ति तथा उसकी अहिंसा एवं जीवदया तथा सिद्धों एवं नाथों की हठयोग साधना आदि से सम्बंधित तत्वों का साधिकार निरूपण हुआ है।

कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग – ‘साखी,सबद और रमैनी’। यह पंजाबी, राजस्थानी, खडीबोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की किचडी है।

कबीर सधुक्कडी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे। कबीर ने समाज में व्याप्त रूढिवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। मूर्तिपूजा और खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया।
Ø हिन्दुओं की मूर्तिपूजा पर खण्डन...... 

“पहानपूजैहरिमिलेतोमैंपूजूँपहार।
यातोयहचक्कीभलीपीसखायेसंसार”।।

Ø तो मुसलमानों से पूछा……… 

“काँकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।
ता चंदि मुल्ला बांगदै बहरा हुआ खुदाय”।।

Ø हिन्दू-मुसलमान भेदभाव का खण्डन.....

“वही महादेव वही महमद ब्रह्मा आदम कहियो ।
कोहिंदूकोतूरककहावै,एकजमींपररहियो”।। 

Ø शास्त्रों के नाम पर रूढ़िवाद का खण्डन...... 

“जाति-पांतिपूछेनहिंकोई,
हरिकोभजैसोहरिकाहोई”।

Ø वर्णाश्रय व्यवस्था पर खण्डन.......... 

“एकबून्दएकैमलमूतर, एकचामएकगूदा।
एकजोतिमेंसबउत्पनां, कौनबाह्मनकौनसूदा”।।

Ø बाह्याडम्बरों का खण्डन...... 

“तेरा साँई तुज्झ में,ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का मिरग ज्यों,फिर-फिर ढूँढे घास”।।

कबीर को हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी कवि माना जाता है। साधना के क्षेत्र में जिसे ब्रह्म कहते है, साहित्य में उसे रहस्यवाद कहा जाता है। कबीर ने रहस्यवाद की दोनों कोटियों – साधनात्मक एवं भावनात्मक का वर्णन किया है। इनकी रहस्यात्मक अनुभूति गम्भीर है।

“जल में कुंभ-कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समान, यहु तत कथो गियानी”।।

मुख्यतः हम समझना है कि पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को, प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है।

कबीर का रहस्यवाद

रहस्यवाद शब्द का प्रयोग चाहे जितना नया हो, रहस्यमयी सत्ता की प्रतीति और उसे मानवीय अनुभव की परिधि में लाकर उसके मधुरतम व्यक्तित्व की कल्पना तथा उससे आत्मिक सम्बंध स्थापना की प्रवृत्ति विश्व के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में पाई जाती है। इसी धरातल को रहस्यवाद स्वरूप ग्रहण करता है।

कबीर भक्त पहले थे, ज्ञानी बाद में। कबीर की मूल अनुभूति अव्दैत की है, लेकिन कबीर ने उसे रहस्यवाद के रूप में व्यक्त किया है। कबीर वेदांत के अव्दैत से रहस्यवाद की भूमि पर आए है। उनका रहस्यवाद उपनिषदों के ऋषियों के समान रहस्यवाद हैं, जो अव्दैत के अंतर्विरोधों में समन्वय करने वाली अनुभूति है। वे सगुण की अपेक्ष निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं। इस कारण उनका भगवत-प्रेम रहस्यवाद कहलाया। कबिर ने अव्दैत ज्ञान, प्रेममूलक भक्ति और रहस्यवाद के मिश्रण से निर्गुण भक्ति में मौलिक स्थापना की। रहस्यवादी प्रेम को अपनाने के कारण उनकी भक्ति में सुगण भक्ति जैसी सरसता आ गई।

कबीर ने जीवात्मा-परमात्मा के प्रेम का सीधा-सीधा चित्रण किया है। उन्हेंने इसके लिए सूफी कवियों के समान कथा–रुपकों का प्रयोग नहीं किया है। परमात्मा से प्रेम को साकार व अनुभवजनित रूप देने के लिए कबिर को प्रतीकों, रूपकों व अन्योक्तियों का अवश्य आश्रय लेना पडा । ये प्रतीक कबीर के आध्यात्मिक प्रेम को व्यक्त करते हैं। इनमें कहीं भी लौकिक पक्ष का समावेश नहीं हुआ है। गुरु की कृपा से उनके भीतर ईश्वर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। इससे उनके ह्रदय-चक्षु भुल जाते हैं तथा उन्हें उस परमात्मा सत्ता के दर्शन होते हैं। तब कबीर अत्यंत आनंदित हो जाते हैं। इस आनंद की वर्षा में उनका अंग-प्रत्यंग भीग जाता है।

“कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आय।
अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराय।।“

प्रेम की इस प्रचंड अनुभूति से सारा विश्व चेतन स्वरूप व आनंद रस में डूबा दिखाई पडता है। तन साधक संसार से विरक्ति हो जाती है। जगत विषय-भोगों का मकड़जाल अनुभव होता है। इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय ईश्वर का पावन स्मरण ही है।

कबीर के ह्रदय में प्रभु-मिलन का असीम उत्कंठा जागृत होती है। इससे उनके भीतर की वेदना और गहरा जाती है। उनकी आत्मा न तो परमात्मा को बुला ही पाती है और न ही वहाँ परमात्मा तक पहुँच पाती है ---

“आइ न सकौ तुझ पै, सकूं न बुझ बुलाइ।
जियश यौ ही लेहुंगे, विरह तपाइ तपाई।।“

कबीर की विरह-व्यथा अत्यंत तीव्र व्यथा है। यह व्यथा चरम सीमा तक पहुंच जाती है और जीवात्मा अपने स्व को मिटाकर अपने प्रियतम के दर्शन करना चाहती है। परमात्मा को पाने के लिए कबीर बहुत भटकते हैं, वे उन्हें फिर भी पा नहीं पाते।
कबीर के काव्य में अनुभव की अत्यंत तीव्रता है। कबीर ने जीवात्मा और परमात्मा के इस प्रेम को पति-पत्नी के रूप में चित्रित किया है। कबीर ने कई बार पत्नी के रूपक में तो अधिकांश साखियाँ ऐसी कही हैं, जिनमें पुल्लिंग का प्रयोग जीवात्मा के लिए किया है। कहीं- कहीं कबीर ने इसे अन्य संबंधों के रूप में भी माना है। कबीर ने पिता-पुत्र के संबंध के माध्यम से भी इस प्रेम का चित्रण किया है ---

“पूत पियारो जगत् को, गौहनि लागा धाइ।
लोभ मिठाई हाथ दै, आपण गया भुलाइ।।“

जैसे-जैसे जीवात्मा और परमात्मा के मिलन की प्रगाढ़ता बढ़ती है। परिचय और मिलन की अनुभूति में परमात्मा व जीवात्मा की व्दैतता मिटती जाती है। रहस्यवादी की दृष्टि में इन अवस्थाओं में ससीम जीवात्मा का असीम परमात्मा में विलय हो जाता है और ऐसी स्थिति में रहस्यवादी कबीर की पूर्ण निष्ठा अव्दैत में ही होती है।

कबीर की साखियाँ “परचौ कौ अंग” में ऐसी साखियाँ हैं, जो एक ओर कबीर के भावनात्मक रहस्यवादी स्वरूप को स्पष्ट करती हैं, तो दूसरी ओर उनके आत्मज्ञानी स्वरूप को इस अनुभूति का आधार अव्दैत वेदांत है। कबीर ने जीवात्मा के परमतत्व के रूप में परिणत हो जाने की अनुभूति के साक्षात्कार को पानी और हिम के उदाहरण व्दारा समझाया है -----
“पानी ही ते हिम भया, हिम हू गया बिलाय।
कबिरा जो था सोई भया, अब कछु कहा न जाय।।“
इस अवस्था में “मै” और “तू” का अंतर नहीं रहता है। धीरे – धीरे यह “मैं” “तू” में समा जाता है। यह बूँद के समुद्र में समाने और समुद्र के बूँद में समाने की प्रक्रिया है। मन का भ्रम दूर हो जाने पर कबीर को परब्रह्म का साक्षात्कार होता है। कबीर इस परब्रह्म स्वरूप में समा जाते हैं। इस अवस्था में आने के पश्यात् रहस्यवादी के लिए संसार की समस्त विषमताएँ आनंददायक हो जाती हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कबीर पाश्यात्य या सूफी परंपरा के रहस्यवादी मात्र नहीं थे, बल्कि उनमें भारतीय तत्व भी है। जैसे अव्दैत वेदांती का ज्ञान, वैष्णवों का अनन्य प्रेम, रहस्यवादियों की भावनात्मक एकता एवं योगियों का साधना से प्राप्त परमानंद। कबीर ने रहस्यवादी साधना के मार्ग पर चलकर निर्गुण व निराकार ईश्वर की भक्ति का वह रूखापन दूर किया, जिसके कारण व्यक्ति इससे अधिक निकटता अनुभव नहीं करते थे । ऐसा करके कबीर ने निर्गुण की साधना व उपासना में भी मिठास लाया है।

कबीर का समाज दर्शन और उनकी प्रासंगिकता

भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति है,जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घ काल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जन-जीवन का नायकत्व किया। कबीर ने एक जागरूक,विचारक तथा निपुण सुधारक के रुप में तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों पर निर्मम प्रहार किया। कबीर के व्यक्तित्व में नैसर्गिक और परिस्थितियों की प्रतिक्रियाओं का योग हुआ है। उन्हें “जाति-पांति प्रथा” सब से अधिक दुःखदायक एवं असह्य प्रतीत हुई। उन्होंने स्वतः कहा है.....

“तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्म विचार”।
पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को,प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति,एक समाज का स्वरूप दिया। कबीर-पंथ में हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए स्थान है। जाति प्रथा के मूलाधार वर्णाश्रय व्यवस्था पर गहरी चोट करते हुए.......

“एक बून्द एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जोति में सब उत्पनां, कौन बाह्मन कौन सूदा”।।

इस अनुभव को धारण करने में ही मानवता का हित निहित हैं। मूर्तिपूजा और खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है ……….
“पहान पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
या तो यह चक्की भली पीस खाये संसार”।।

तो मुसलमानों से पूछा………
“काँकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।
ता चंदि मुल्ला बांगदै बहरा हुआ खुदाय”।।
कबीर ने शास्त्रों के नाम पर प्रचलित भेदभाव की रूढि का खण्डन करते हुए स्पष्ट उद्घोष किया.........
“जाति-पांति पूछे नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई”।

हिन्दू-मुसलमान भेदभाव का खण्डन करते हुए कहते है कि……….
“वही महादेव वही महमद ब्रह्मा आदम कहियो ।
को हिंदू को तूरक कहावै,एक जमीं पर रहियो”।।
हिन्दू और मूसलमानों में धार्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने उस निराकार,निर्गुण राम की उपासना का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर ऐसे साधक है,जो दोनों की अभेदता का, दोनों की एकता का मरम जानते है, तत्व समझते है। इसलिए स्पष्ट शब्दों में सुझाव देते है……….
“कहै कबीर एक राम जपहिरे,हिन्दू तुरक न कोई।
हिन्दू तुरक का कर्ता एकै,ता गति लखि न जाई”।।

कबीर तीर्थ-यात्रा,व्रत,पूजा आदि को निरर्थक मानते हुए हृदय की शुद्धता को महत्व देते है।वे कहते हैं कि……….
“तेरा साँई तुज्झ में,ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का मिरग ज्यों,फिर-फिर ढूँढे घास”।।
कर्तव्य भावना की प्रतिष्ठा करते हुए प्रभु के लिए मन में सच्चा प्रेम नहीं तो ऊपर से बाहरी तौर पर रोने-धोने से क्या लाभ होगा……….
“कह भथौ तिलक गरै जपमाला,मरम न जानै मिलन गोपाला।
दिन प्रति पसू करै हरि हाई,गरै काठवाकी बांनि न जाई”।।

स्पष्टतः वे बाह्याचारों को ढ़ोंग मानते है और अन्तः साधना पर बल देते है। वे ब्रह्म का निवास अन्तर में मानते है और उसे पाने के लिए अपने भीतर खोजने की सलाह देते है। वे कहते है……….
“पानी बिच मीन पियासी,
मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी,
आतम ज्ञान बिना सब सूना
क्य मथुरा क्या कासी ?
घर की वस्तु घरी नही सूझै
बाहर खोजन जासी”।

स्पष्टतः कबीर ने एक ऐसा साधना परक भक्ति मार्ग खडा किया, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों बिना किसी विरोध के एक साथ चल सके।यह मार्ग ही निर्गुण मार्ग या संत मत है। कबीर की यह दृष्टि परम्परा के सार तत्वों के संग्रह से बनकर भी परम्परा से भिन्न है। इसलिए क्रांन्तिकारी है। कबीर अपनी साधना से इस निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुके थे और इसे दूसरों तक पहुँचाना चाहते थे। इसलिए समाज-सुधारक कबीर आज भी प्रासंगिक है।

जायसी-पद्मावत में रूपक–तत्व

पद्मावत की कथा समाप्त करते हुए उपसंहार में जायसी ने रूपक का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है –
“तन चितउर, मन राजा कीन्हा हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा।
\गुरू सुआ जेई पन्थ देखावा बिनु गुरू जगत को निरगुन पावा?
नागमती यह दुनिया–धंधा।बाँचा सोइ न एहि चित बंधा।।
राघव दूत सोई सैतानू।माया अलाउदीं सुलतानू”।।

इस प्रकार कवि ने सम्पूर्ण कथा को रूपक बतलाया है। कथा में उल्लिखित विभिन्न पात्रों को उसने मनुष्य की मानसिक शक्तियों का प्रतीक अथवा प्रतिरूप माना है और इस दार्शनिक मत की ओर संकेत किया है कि जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है । उपर्युक्त वर्णन के अनुसार तन चित्तौड है, संकल्प–विकल्पात्मक मन रत्नसेन है, रागात्मक हृदय सिंहल है, शुद्द बुद्दि पद्मावती है, हीरामन तोता गुरू है, नागमती संसारिक मोह है, राघवचेतन जीवात्म को पथभ्रष्ट करने वाला शैतान है। इस प्रकार सभी पात्र विभिन्न संकेतार्थ रखते है ।
समालोचकों की दृष्टि में पद्मावत का रूपक कथा को विकृत करता है और पद्मावत की कथा रूपक का मजाक उडाती है । कथा और रूपक एक दूसरे के नितांत अनुपयुक्त हैं। उनका यह कथन पर्थाप्त अशों में सत्य है क्योंकि रूपक में कई त्रुटियाँ पाई जाती है ।
रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रतनसेन आत्मा का, पद्मावत सात्विक बुद्दि के अलाव परमात्मा का प्रतीक माना। इस से आत्मा और परमात्मा के बाद रूपक आगे नहीं बढ पाता। रूपक पद्मावत के पूर्वार्द्ध पर ही लागू होता है, उत्तरार्द्ध पर नहीं।

डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल के अनुसार रूपक कल्पना की तीन बातें खटकती है।
कवि ने कथा के प्रकरणों में रूपक का एक समान निर्वाह नहीं किया है।
कुछ प्रस्तुतों एवं अप्रस्तुतों में रूप, गुण और प्रभाव का साम्य नहीं दिखाई देता ।
अप्रस्तुतों के जो पारस्परिक सम्बंध और कार्य–व्यापार है,वह प्रस्तुतों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं कृत्यों को न तो पूर्णतः प्रकट करते हैं और न उनके अनुकूल है ।

पद्मावत की विशोषता रूपक का निर्वाह करने में नहीं, कथा प्रस्तुत करने में है, बीच–बीच में अत्यन्त मनोहर रहस्यात्मक संकेतों का सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है, परन्तु पकड में नही आता ---

“सरवर देख एक में सोई।
रहा पानि, पै पान न होई”।।

सारांश यह है कि रूपक जायसी की प्रबन्ध–रचना का आधार या अनिवार्य अंग नही है, जो कुछ आध्यात्मिक संकेत बीच–बीच में प्राप्त होते है, वह उनके दार्शनिक संत स्वभाव के कारण। यदि पद्मावत रूपक–काव्य सिद्द नही होता , तो इससे जायसी की कीर्ति और पद्मावत के काव्य–सौंदर्य को कोई क्षति नही पहुँचती । पद्मावत सफल प्रबन्ध–काव्य के रूप में ही देखना चाहिए।

जायसी-प्रेमभावना

जायसी का “पद्मावत” प्रेमगाथा परम्परा का परिपुष्ट ग्रन्थ है। पद्मावत की कथा का आदि, मध्य और अंत प्रेम से ओत-प्रोत है। तन, मन और प्राण की समस्त साधना और समस्त दार्शनिक चिन्तन प्रेम को ही पृष्ट करने के लिए क्रियाशील हैं। जायसी ने मसनवी पद्धति पर लिखी प्रेम-गाथा को भारतीयता का आवरण पहना दिया है। प्रेम-लोक ऐसा ज्योतिपूर्ण है कि जो उसका एक बार दर्शन कर लेता है तो उसे यह लोक अन्धकार पूर्ण लगता है, और इससे वह आँखें हटा लेता है।
“सुनि सो बात राजा मन जागा। पलक न मार प्रेम चित लागा।
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा। जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा।
हिऐ की जोति दीप वह सूझा। यह जो दीप अँधिंअर भा बूझा।
उलटि दिस्टि माया सौं रूठी। पलटि न फिरी जांनि कै झूठी”।

जायसी ने प्रेम के संयोग और वियोग दोनों का मार्मिक वर्णन किया है। जायसी के प्रेम-पीर के आँसुओं से सिंचकर लता नागमती अमर हो गई। उसके आँसुओं से समस्त सृष्टि गीली हो गई। पद्मावत में संयोग पक्ष का अत्यंत सांगोपांग स्वरुप है। प्रेम सैंदर्य की सृष्टि करता है इस सृष्टि सैंदर्य प्रेम के अतिरिक्त कुछ नही है।

“तीन लोक चौदर खंड, सबै परै मोहि सूझि।
प्रेम छाँडि किछु और न लेना,जौ देखौ मन बूझि”।

प्रेम की प्राप्ति से दृष्टि आनंदमय और निर्मल हो जाती है। प्रेम की यदि एक चिनगारी हृदय में सुलगाते अग्नि प्रज्वलित हो सकती है, जिस से सारे लोक विचलित हो जाय----

“मुहमद चिनगी प्रेम कै सुनि महि गगन डेराइ।
धनि बिरही औ धनि हिया, जहँ अस अगिनि समाइ”।।

जीवात्मा एवं परमात्मा दोनों मे सर्वात्मना एक्यभाव प्रदर्शित होता है। यह स्वाभाविक हैं कि नारी से बढकर मधुर प्रेममयी प्रतीक कहाँ मिलेगा। फलस्वरूप इसी प्रतीक को अपनी साधना का माध्यम बनाकर जायसी ने “प्रेम तत्व” की महत्ता प्रतिष्ठित की तथा आत्मा-परमात्मा के महामिलीन की परिकल्पना द्धारा अपने महान आध्यात्मिक दर्शन की रहस्यवादी पृष्ठभूमि तैयार की। जीवात्मा के आधार पर उस चिन्मय स्वरूप में एकाकार करना ही उनके प्रेमतत्व का मूलाधार हैं। जायसी के प्रेम सम्बंधी दृष्टिकोण का सार निम्नांकित नौ शब्दों में निहित है-----

“मानुस प्रेम भएउ बैकुण्ठी।
नाहित काह छार भरि मूठी”।

जायसी के लिए प्रेम विरह–मिलन की क्रीडा मात्र नहीं, एक कठोर साधना है।

जायसी–सौंदर्य दृष्टि

जायसी के अनुसार प्रेम ही वह तत्व है जो सौंदर्य की सृष्टि करता है, इस सृष्टि में जो सौंदर्य है वह प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।

“तीन लोक चौदह खंड, सबै परै मोहि सूझि।
प्रेम छाँडि किछु और न लेना, जौ देखौं मन बूझि”।

सौंदर्य जीवात्मा में स्थित प्रेम को जागृत करके उसे अपनी ओर आकर्षित करता है। परमात्मा परम सुन्दर है। समस्त जगत् दर्पण है, जिस में उस परम सौंदर्यमय का प्रतिबिम्ब पडता है, अतएव समस्त जगत में जहाँ-जहाँ आकर्षण हो वहाँ–वहाँ उसी के सौंदर्य की छाया है। जायसी के शब्दों में....
“सबै जगत दरपन के लेखा। आपुहिं दरपन आपुहि देखा”।।

सौंदर्य एक मुक्ता–बिन्दु है, जिसे प्रेमी साधक के नेत्र–कौडिया अनायास उसके हृदय–समुद्र से चुगते रहते हैं, जब वह आन्दोलित होकर उमडता है..........

“सरग सीस धर धरती हिया सो प्रेम समुंद।
नैन कौडिया होर रहे लै लै उठहिं सो बुंदा”।

सौंदर्य का क्षेत्र यह हृदय-कमल देखने में भले ही विकट ज्ञात होता है किन्तु इसे प्राप्त करना दृष्कर है..........

“अहुठ हाथ तन सरवर हिया कँवल तेहि माँह।
नैनन्हि जानहु निअरें कर पहुँचत अवगाह”।

रतनसेन तोते से पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन सुनकर प्रेम–विहृल होकर मूर्छित हो जाता है। सौंदर्य प्रेम का जनक है।
“परा सो पेम समुंद अपारा।
लहरहिं लहर होइ बिसंभारा”।।
पद्मावती के सौंदर्य का निरूपण कवि ने “नख-शिख वर्णन” की परम्परा के निर्वाह के रूप में भी किया है। सौंदर्य की दिव्यता व्यंजित करने के लिए कवि ने कही-कही फलोत्प्रेक्षा के सहारे ऐसे प्रसंगों की अवतारणा की है जिनमें साधना की पावनता प्रतिष्ठित है, जैसे एक स्थल पर कवि कहता है तपस्वी करपत्र साधना कर अपने को बलि कर देते हैं ताकि पद्मावती रूपी आराध्य उनके खून को माँग में भरे अर्थात उनका रक्त आराध्य के मस्तक तक पहुँच जाय और उनकी साधना सार्थक हो जाय।

पद्मावती के सौंदर्य–वर्णन में कवि ने यत्र-तत्र आध्यात्मिक अर्थ का समावेश करने की चेष्टा की है। जैसे.........

“रवि ससि नखत दीन्ह ओहि जोती।
रतन पदारथ मानिक मोती”।।
इससे स्पष्ट है कि कवि पद्मावती के रूप में अलौकिकता का समावेश कर उसे आध्यत्मिक स्वरूप देने के प्रति आग्रहशील है।